“आओ फिर से दिया जलाएँभरी दुपहरी में अंधियारासूरज परछाई से हाराअंतरतम का नेह निचोड़ेंबुझी हुई बाती सुलगाएँ।आओ फिर से दिया जलाएँहम पड़ाव को समझे मंज़िललक्ष्य हुआ आंखों से ओझलवतर्मान के मोहजाल मेंआने वाला कल न भुलाएँ।आओ फिर से दिया जलाएँ।आहुति बाकी यज्ञ अधूराअपनों के विघ्नों ने घेराअंतिम जय का वज़्र बनानेनव दधीचि हड्डियां गलाएँ।आओ फिर से दिया जलाएँ”

Atal Bihari Vajpayee

Atal Bihari Vajpayee - “आओ फिर से दिया जलाएँभरी दुपहर...” 1

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“रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गये,धोये गये हम ऐसे कि बस पाक हो गये.कहता है कौन नाला-ए-बुलबुल को बे-असर,परदे में गुल कि लाख जिगर चाक हो गये.करने गये थे उससे तग़ाफ़ुल का हम गिला,की एक ही निगाह कि बस ख़ाक हो गये.इस रंग से उठाई कल उसने असद की लाश,दुश्मन भी जिसको देखके ग़मनाक हो गये.”

Mirza Ghalib
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“धोखा देना और धोखा खाना इंसानी फितरत है, जो इस लानत से आजाद है वो जरूर जंगल में रहता है।”

Surender Mohan Pathak
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“... इधर-उधर से कई अफ़सर दौड़े आए और उन्होंने देखा कि वह आदमी जो 15 बरस तक दिन-रात अपनी दाँगों पर खड़ा रहा था, औंधे मुँह लेटा है-उधर ख़ारदार तारों के पीछे हिंदुस्तान था, इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान ; दरमियान में ज़मीन के उस टुकड़े पर जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेक सिंह पड़ा था.”

Saadat Hasan Manto
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“मेरी कविता क्या है!सच्चाई के दो मोती हैं; एक खुशी की परछाईं का एक दर्द की गहराई का --विकास प्रताप सिंह 'हितैषी”

VikasPratap Singh
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“दो न्याय अगर तो आधा दो,पर, इसमें भी यदि बाधा हो,तो दे दो केवल पाँच ग्राम,रक्खो अपनी धरती तमाम।हम वहीं खुशी से खायेंगे,परिजन पर असि न उठायेंगे!दुर्योधन वह भी दे ना सका,आशिष समाज की ले न सका,उलटे, हरि को बाँधने चला,जो था असाध्य, साधने चला।जन नाश मनुज पर छाता है,पहले विवेक मर जाता है।हरि ने भीषण हुंकार किया,अपना स्वरूप-विस्तार किया,डगमग-डगमग दिग्गज डोले,भगवान् कुपित होकर बोले-'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।यह देख, गगन मुझमें लय है,यह देख, पवन मुझमें लय है,मुझमें विलीन झंकार सकल,मुझमें लय है संसार सकल।अमरत्व फूलता है मुझमें,संहार झूलता है मुझमें।”

Ramdhari Singh Dinkar
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